10 Jan 2012

जिन पर था कभी भरोसा!!!



जिनपर था कभी खुद से ज्यादा भरोसा,
वो ही आज दे गए दगा...
तन्हाइयो के इस चिलमन में,
रहने की दे गए वो हमें सज़ा...


वक्त पड़ते आज सोचता हूँ 
क्यों था उनपर इतना यकीब (=यकीन), 
जो कहलाते थे हमदम पर
पर जरुरत आन पड़ने पर बना गए हमें रक़ीब...


ग़म-ऐ-आलम भी ये है कि निगाह में रहते किसी को,
अपनी जुस्तजू ये "RAHUL" कह नहीं सकता...
और जो हमारी अंदाज़-ऐ-गुफ्तगू को बेतलब समझ लिया करते थे,
उस बाशिंदे को अब अपना मुसाहिब, इंशाअल्लाह, कह नहीं सकता !!!


---राहुल जैन (*12:01 AM on 10-01-2012*)

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